Wednesday 17 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा

                                  हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                     - राकेश रोहित 
(भाग -5) (पूर्व से आगे)

        अथ कथा  जय श्री भगवान कामतानाथ ) में भगवान के जन्मदिन के बहाने एक आतंक भरी फैंटेसी उर्फ फैंटेसी का आतंक है. अब्दुल बिस्मिल्लाह की  नदी किनारे शाम  एक निर्दोष भावुक अपील से लिखी गयी कहानी है, एक बूढ़ा जो कभी नहीं मरता और 'परदेशी' जो उम्र के अंतरालों पर उन्हें तलाशता है और आसमान चिड़ियों से भर जाता है. इस कहानी में एक जगह अब्दुल जी ने लिखा है, "सभी ऋतुएं समय से आयीं और गयीं, गांव की कुछ गायों ने बछड़े जने और कुछ बछियाएं. एक कुम्हार जो बहुत दिनों से बीमार था मर गया. दो युवक डकैती करते हुए पकड़ लिए गये. सब्जी तो महंगी हुई थी अन्य चीजें भी महंगी हो गयी." समय को मापने का यह अंदाज मुझे परेशान करता है और विचलित भी. बहुत दिनों से बीमार,  मर गये कुम्हार और डकैती में पकड़ लिये गये युवक को इस तरह दिनचर्यात्मक घटनात्मकता से जोड़ देना मुझे संवेदना का यथास्थैतिक हनन लगता है, जो हम  झीनी-झीनी बीनी चदरिया के अब्दुल जी से उम्मीद नहीं करते. इन निर्वैयक्तिक स्थितियों के विरुद्ध  निर्मल वर्मा की एक चिंता देखिए,  " क्या कोई इतिहास में लिखेगा कि सितंबर 1955 की शाम को सड़क पर चलती हुई भीड़ में से  एक  चेहरा हँसा था" ( सितंबर की एक शाम, परिंदे ). और अस्तित्व को 'आइडेंटीफाई' करने की इस चिंता तक निर्मल वर्मा अचानक और किसी वैयक्तिक रुझान से अनायास नहीं पहुंचते हैं, बल्कि इसकी एक निरंतर प्रक्रिया है. पिक्चर पोस्टकार्ड  कहानी में इसे देखा जा सकता है. जब परेश एसप्रेसो रेस्तरां में रात के ठीक दस बजे जूक बॉक्स में  रिकॉर्ड बजाता है- थ्री कायन्ज इन द फाउन्टेंन. इसलिए कि नीलू ने कहा था जबकि इस समय वह  ट्रेन में होगी. मैं समझता हूँ यह भावना न केवल मनुष्य की निजी दैहिक भौतिकता का अतिक्रमण करती है वरन् इससे आगे व्यवस्था की भौतिकता, जो नीलू द्वारा हर शहर से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने के आग्रह से अभिव्यक्त होती है, के विरुद्ध कुछ बचा लेने की जिद से जुड़ जाती है. और निर्मल वर्मा पर नामवरी पश्चाताप के बाद अगर आप परिंदे से नाक-भौं सिकोड़ने की मुद्रा में न हों तो यह देखना महत्वपूर्ण है कि पिक्चर पोस्टकार्ड कहानी में अमूर्त रूप से व्यक्त यह भाव परिंदे कहानी में ठोस प्रतीक के रूप में सामने आता है जब मिस लतिका जूली के तकिये के नीचे नीला लिफाफा दबाकर रख देती है. अविवाहित मैडम द्वारा अपनी छात्रा को उसके प्रेम-पत्र वापस कर देने की यह प्रक्रिया विलयन की वह अवस्था है जहां अस्तित्व का पारदर्शी क्रिस्टल आकार ग्रहण करता है. मैं नहीं समझता कि व्यक्ति और व्यक्ति की अस्ति के सूचकों को नकार कर सामुदायिकता की बात की जानी चाहिए या की जा सकती है.


(आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)
                                                                      .....जारी  

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