Friday 3 December 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा 
     हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                        - राकेश रोहित 
(भाग -7) (पूर्व से आगे)

        विष्णु नागर की साधु का रास्ता असफल यात्राओं की कथा है, "जहां एक का अर्थ दूसरे को मंजूर नहीं और अर्थ बतानेवाले को भी अपने अर्थ पर शंका रहती है." इंद्रमणि उपाध्याय की मौत दर मौत में भौतिकता में उलझी संवेदना का मरणराग बजता है. हृदयेश की मनु तटस्थ व्यंग्य के माध्यम से बदलते समाज और जड़ चेतना की शिनाख्त करती है. कहानी याद रहती है और कमलेश्वर की गर्मियों के दिन की याद दिलाती है. भीष्म साहनी की मान्यताएं एक ठहरे हुए समाज में वैचारिकता की आम सहमति की किस्म की परख करती है और इस तरह स्थापित कर पाती है कि किस तरह हमारे  निर्णयों की विचारधारा के केंद्र में मनुष्य की जगह कुछ तय सुविधाएं है. मार्कण्डेय, हलयोग में ग्रामीण सामंतवाद की कुछ दंड प्रक्रियाएं लेकर उपस्थित हुए हैं. 'ए से एस और जेड से जेब्रा', आजकल संजीव कुछ एस तरह की संयोगात्मकता का भी उपयोग अपनी अभिव्यक्ति में करने लगे हैं और आप चौंकने के लिए स्वतन्त्र है. वैसे मांद कहानी में संजीव जो कर पाए हैं वह यह कि एक माहौल में पल रहे एक परिवार पर हावी होते वर्ग विभेद के दवाबों को ग्रामीण अंदाज से पकड़ते हैं. कि वह केवल मांद है जहां सुरक्षा और सुविधा का दमघोंटू अहसास है और अपनी जमात मांद से बाहर है. स्वयं प्रकाश, हत्या कहानी के दो प्रसंगों में संवेदनाओं को उनकी मौलिकता में बचने की फ़िक्र से जुड़े है.

        शशांक की कहानी बालूभीत पवन का खंभा एक तनाव की तरह फैलती है और धीरे से उसमें उठती है व्यतीत-मोह की सुगंध. "माया सुनो तो देखो. वह लड़की तुम्हारे बचपन की माया नहीं लगती?" बीत हुए को फिर से पा लेने की मोह भरी जिद, शायद यही है जो इस बिखराव भरे जीवन का गोंद है. मोहन थपलियाल की कहानी एक वक्त की रोटी बिना किसी बड़बोलेपन के हमारे सामने डिबली के एक वक्त के जीवन की कथा कहती है. पानी से लेकर रोटी तक के जुगाड़ में डिबली  की पहाड़ सी मशक्कत हमारी चौवालीस साला आजादी के खिलाफ सबसे सशक्त व्यंग्य है. राजेन्द्र दानी की उनका जीवन में उनके दुःख को मिथ में बदल देने की कोशिश मुझे अजीब लगती है. हां, उनके जीवन से हमारे अंदर उठता भय कुछ समझ में आता है. निजी सेना (हंस, सितंबर, 1987) के बाद जयनंदन ने लगातार इतनी कहानियां लिखी कि पाठक कहानी का नाम भले याद न रख पाये जयनंदन का नाम नहीं भूलता. तो ऐसे में यह सूचना के तौर पर लिया जाना चाहिए कि जयनंदन की कहानी छुट्टा सांड आयी है. मेढक शैक्षणिक स्मृतियों का रोचक स्मरण है, पर कहानी के रूप में इसका प्रभाव कमजोर है ऐसा गंभीर सिंह पालनी जी भी मानेंगे. महेश दर्पण की दरारें में एक घर की दीवारों पर पड़ती दरारों से जीवन में उठती दरारें हैं.

        अमरकांत की श्वान गाथा पढकर श्रीकांत की कुत्ते (सारिका, जुलाई, 1982) कहानी याद आती है. ये कहानियां एक दूसरे का विकास हैं जिसे दो भिन्न पीढ़ी के लेखक अपने समय की जिम्मेवारी से उठाते हैं. श्रीकांत की कुत्ते में कुत्ता के खोने से खड़ा हुआ सरकारी तमाशा है तो अमरकांत की श्वान गाथा में कुत्ता काटने को लेकर क्रांतियां-प्रतिक्रन्तियां तक हो जाती हैं. कुल मिलाकर यह हमारे समय पर गैर मुद्दे की बातों का आच्छादित होना है.
   
 (आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)
                                                                      .....जारी       

2 comments:

  1. yadi ek hi kahani ki charchaa karen to baat jyada spasht hogi .......

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  2. मूल्यांकन और समीक्षा की दृष्टि से शुशीला पुरी जी के विचारों से मै भी सहमत हूँ, ..परन्तु यह पोस्ट उन कहानियों की याद दिला रहा है जो हमें चयन करने का एक बेहतरीन अवसर उपलब्ध करता है. कुल मिलाकर यह पोस्ट पाठक के मन में कहानियों को पढने का भाव जरूर जगाता है यही इसकी सफलता भी है...

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